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(ये हक़ीक़त है, जो कहानी से ज़्यादा दिलचस्प, लेकिन भयानक है....आज भी लाल जोड़ा देखकर रुख़सार का चेहरा निगाहों से आंख-मिचौली खेलकर ग़ायब हो जाता है, ठीक उसी की तरह...) रेलगाड़ी मुरादाबाद में पटरियों पर धीरे-धीरे रेंग रही है। अपने सीने से लोहे के भारी-भरकम पहियों को गुज़रने की इजाज़त देने वाली पटरियों को शायद नहीं मालूम था, कि उस दिन गाड़ी के पहिए जब उसके सीने से टकरा रहे थे, तो सिर्फ़ लोहे के टकराने की आवाज़ ही नहीं, बल्कि उसमें कहीं शहनाई की गूंज सुनाई दे रही थी। आप कहेंगे पटरियों की आवाज़ और शहनाई में क्या रिश्ता....नहीं..., मगर रुख़सार कहती है `हां`। वही रुख़सार, जिसने ज़िंदगी में एक बार अनजान से काज़ी के एक सवाल के जवाब में हां (क़ुबूल, क़ुबूल, क़ुबूल) कहा था और उसके बाद बदनसीबी से ये इक़रार उसका नसीब बन गया। ख़ैर रेलगाड़ी क़रीब चौबीस घंटे का सफ़र करने के बाद अपनी मंज़िल बिहार (पटना) पहुंच चुकी थी। गाड़ी क़रीब खाली हो चुकी थी और तीन लोग खिड़की से बाहर झांक रहे थे। बिहार और मुरादाबाद का ये रिश्ता सबसे पहले रेल की पटरियों के नाते जुड़ा, जो बाद में कांच की चूड़ियों से बंध गया। पटरियों के सीने पर दौड़ती गाड़ी आज वही रिश्ता लेकर पीतलनगरी (मुरादाबाद) से पटना पहुंची। रिश्ता क्या था, एक ग़रीब लड़की के अरमान अंतिम संस्कार से पहले किसी लाश की तरह सजाए जा रहे थे। मगर, शादी के बावजूद सन्नाटा एकदम वैसा ही था, जैसा मरघट पर होता है। पटना से क़रीब छह घंटे और दो बसों का सफ़र करके मुरादाबाद के तीनों लोग एक अनजाने से गांव में पहुंचे। एक औरत, दो आदमी और तीन झोले। सबसे अच्छा दिखने वाला झोला औरत के हाथ में था, जिसे वो मरते दम तक भी नहीं छोड़ती। मगर एक बहुत ही भोले-भाले दिखने वाले बच्चे ने औरत के पीछे से आकर झोला छीन लिया और पूरे गांव को पता चल गया कि, गयासुद्दीन की बेटी आज से ह हमेशा के लिए चली जाएगी। यही है वहां का रिवाज़....,वहां का, उनका..., या फिर ग़रीबी का। पता नहीं..., लेकिन ये अजब विदाई तो उसी दिन तय हो गई थी, जिस मनहूस घड़ी रुख़सार ने दुनिया में क़दम रखा था,( दुनिया में, गयासुद्दीन के घर में या उस गांव में या मुफ़लिसी में, जो भी कह लीजिए, शब्द बदलने से रुख़सार का नसीब नहीं बदलेगा)। गयासुद्दीन के छोटे से घर में मुरादाबाद के तीनों ख़ास मेहमान ऐसे समा गए, जैसे सांप के पेट में चूहा। क़रीब चौबीस घंटे तक गयासुद्दीन के घर में और कोई नहीं आया-गया, लेकिन सबको पता था, कि घर में क्या-क्या हुआ। रुख़सार के क़रीब से निकलने वालों को उसके बदन से गुलाब की ख़ुशबू आ रही थी, लेकिन ना जाने कैसे रुख़सार को ये एहसास हो रहा था, कि शायद ये महक उसकी ज़िंदगी में पहली बार नहीं आख़िरी बार आई है। रुख़सार के हाथ शायद आज पहली बार अपने मुक़द्दर पर ख़ुश हो रहे थे। पत्थरों और कांटेदार लकड़ियों से लड़ते-लड़ते अक्सर ख़ून से नहा लेने वाली बेक़ुसूर उंगलियां सोलह बरस की हो गईं। मुद्दतों बाद रुख़सार की आंखों ने भी ख़ुशी के लम्हे अपनी आंखों में क़ैद किए। अकसर तक़लीफ़ों और मुफ़लिसी में आंसुओं से भीग जाने वाली आंखें आज काजल लगने से भी छलक पड़ीं। आंखों को भी शायद धोखा हो गया था। क्योंकि ये काजल तो आंखों में मेहमान की तरह था, उस छलिया काजल को तो आंसुओं में ही बह जाना था। भाग एक... ये लाल रंग कब उसे छोड़ेगा, (क्रमश....)
एक बड़ा सा पहाड़, जो आसमान को छूता हुआ दिखाई देता था, उससे एक पत्थर टूटकर बहुत नीचे आ गिरा। वो पत्थर कई टुकड़ों में बदल गया और उस पत्थर को लगा जैसे उसकी ज़िंदगी ख़त्म हो गई, लेकिन ऐसा नहीं था। कुछ देर बाद ही वहां एक कौआ आया और पत्थर के टुकड़ों को उठाकर एक घड़े में डाला। पत्थरों को लगा जैसे वो डूब गए, लेकिन ऐसा नहीं था। घड़े में पत्थर पड़ते ही घड़े का पानी ऊपर आ गया। कौए ने पानी पिया और प्यासा मरने से बच गया। यानी टूटे हुए पत्थरों ने बिखरकर भी एक बेज़ुबान की ज़िंदगी बचा ली। वो पत्थर, जब तक पहाड़ का हिस्सा था, तब तक सिर्फ़ दुनिया की नज़रों में था, लेकिन जब वो टूटकर बिखर गया, तो किसी के लिए ज़िंदगी का क़तरा बन गया। दोस्तों शायद इसी का नाम है ज़िंदगी, जो टूटकर भी नहीं टूटती और बिखरकर भी किसी की ज़िंदगी संवारने की ताक़त रखती है।
फ़ुर्सत मिले तो सोचकर देखना.... जब कभी.