Monday, December 1, 2008

ऐसे जागती रही मुंबई...

जो शहर ख़ुद अपनी मर्ज़ी से कभी सोता नहीं उसे ज़बर्दस्ती जगाया गया.., ठीक उसी तरह जैसे किसी बच्चे को ज़बर्दस्ती जगाया जाता है। फिर जिस तरह बच्चा रो-रोकर आसमान सिर पर उठा लेता है, उसी तरह रोई मुंबई। रोईं हज़ारों आंखें, चीखे सैकड़ों बच्चे और कई मांओं के कलेजे चाक (चीर) करने के साठ घंटे बाद बहुत मुश्क़िल से आई नींद। मगर, उस नींद के आने से पहले, कुछ ऐसे बच्चे हमेशा के लिए सो गए, जो मादरे वतन के वीर बेटे थे और अपनी मां से बेहद प्यार करते थे। बेटे तो हमेशा ही ज़िद करते हैं, और मां उन्हें सुकून देने के लिए सब कुछ करने को तैयार रहती है, मगर कुछ ऐसे बेटे रहे, जिन्हे ज़िद थी, मां को पुरसुकून देने की। वो बहुत बड़ी क़ीमत अदा कर गए। मां के दूध का और वतन की मिट्टी का कर्ज़ चुका गए। ये वही बेटे हैं, जो अपनी मां के दिल का चैन किसी भी क़ीमत पर खोने नहीं दे सकते। शहीद तो हमेशा से ही ऐसी नींद के तलबगार रहे हैं, जो तिरंगे के आंचल में सिमट जाने का मौक़ा देती है। मगर, लंबी नींद सोने वाले वीर अपनी आख़िरी सांस तक जांबाज़ी के चिराग़ को अपने लहू से रोशन करते रहे। शहादत की राह में बढ़ने वाले क़दमों को सिर्फ़ और सिर्फ़ जज़्बातों की ज़ुबां से सलाम करते हुए (26/11/08) के दर्दनाक हादसे को आंखों में, सीने में, दिलो-दिमाग़ में और बुरे ख़्वाबों की ताबीर बनाते हुए कुछ ख़्यालात और कुछ मलाल का इज़हार करने से ख़ुद को रोक नहीं सका।

अपना काम कर गए करकरे......

मुंबई के सीएसटी से लेकर ताज होटल तक और ओबरॉय होटल से नरीमन हाउस तक, आतंक के वहशी जुनून में सना हुआ, जो गोला-बारूद फ़िज़ा में क़रीब साठ घंटे तक तैरता रहा, उसे सबसे पहले अपने सीने पर महसूस किया एटीएस चीफ़ हेमंत करकरे ने। उनके साथ एसिस्टेंट कमिश्नर आम्टे और सीनियर इंस्पेक्टर सालस्कर के अलावा मुंबई पुलिस महकमे ने जिन जांबांज़ों को खोया है, आतंकी बारूद की महक ने सबसे पहले उनकी रग़ों का ख़ून खौला दिया। कोई शक़ नहीं, कि वहशी अपने इरादों को उम्मीद से ज़्यादा ख़ून में नहलाकर आगे बढ़ने में क़ामयाब रहे, लेकिन उन्हें इस बात का एहसास भी हो चुका था, कि अब वो बहुत देर तक सरेआम अपने ख़ूनी पंजों को नहीं फैला पाएंगे। आतंकी हमले के बाद कुछ ही लम्हों में जब करकरे अपने जांबाज़ों के साथ दहशत के सरमाएदारों से मुक़ाबिल थे, तो बुज़दिलों ने ख़ून की होली खेलनी शुरू कर दी। भले ही करकरे का सीना छलनी हो गया और उनके साथ गाड़ी में मौजूद जांबाज़ साथियों का ख़ून वतन के काम आ गया, लेकिन आतंकियों के हौसले भी टूट गए। ये आतंकियों पर पहली चोट थी, जिसने उन्हें शहर में खुलेआम और हमले करने से रोक दिया। अब तक उन्हें एहसास हो चुका था, कि उनका बचना नामुमक़िन है, इसलिए वो बढ़ गए ताज, ओबरॉय और नरीमन हाउस की तरफ़। करकरे और उनके साथियों ने जो हौसले दिखाए उसने शहर में सरेआम और क़त्ले-आम से सबको महफ़ूज़ कर दिया। क़रीब साठ घंटे बाद मुंबई में आतंकियों को नापाक लाशों में तब्दील करने के जो लम्हे आए, उनकी बुनियाद रखने के साथ ही क़ुर्बानियों के हमसफ़र बन गए करकरे और उनके साथी।

हक़ीक़त से डर गई सपने की दुनिया...

सपनों की दुनिया में तीन रात ज़िंदा आंखों ने कोई ख़्वाब नहीं देखा, बल्कि हक़ीक़त देखी। ख़ौफ़नाक हक़ीक़त, कभी न भूलने वाली हक़ीक़त, वो हक़ीक़त जिसे कोई ज़ुबां बयां नहीं कर सकती और न ही कोई आंख छिपा सकती है। सपनों के शहर ने यूं तो कई बार ख़ुद को रोते-बिलखते और मजबूरियों के चिल्मन से ख़्वाबों को ज़ार-ज़ार बिखरते देखा, लेकिन इस बार मजबूरी ज़रा जुदा थी, दर्द और ज़्यादा गहरा था, हक़ीक़त किसी डरावने सपने से ज़्यादा ख़तरनाक थी।
(26/11/08)..., मुंबई और हिंदुस्तान का काला बुधवार। किसे पता था, कि उस रात किसी को ना तो नींद आएगी और न ही किसी की आंखों में होगा कोई ख़्वाब। जिन रेलगाड़ियों को वक़्त पर अपने मुसाफ़िरों को मंज़िल तक पहुंचाना था, उन्हें बेवक़्त आख़िरी सफ़र पर भेज दिया गया। जो अपनी रात को जश्न के मुक़ाम तक ले जाने के लिए होटल ताज और ओबरॉय में थे, उनमें से कई लोगों को मौत के मातम से रू-ब-रू करवाया गया। जो लोग इन होटलों में अपनी बिज़नेस मीटिंग की कामयाबी के साथ सुनहरे कल की बुनियाद रख चुके थे, या रखने वाले थे, उनके सपनों को कफ़न पहना दिया गया। अपने और अपने परिवार वालों के लिए दुनिया भर की ख़ुशियों का ढेर लगा देने की तमन्ना लिए लोगों ने दुनिया भर से आए लोगों की लाशों के ढेर देखे। ये दुनिया के किसी भी ख़वाब से ज़्यादा डरावनी हक़ीक़त थी, जिसे अब कोई सपने में भी नहीं देखना चाहेगा।

मुंबई के इस हादसे में शहीद हर जांबाज़ को सलाम और इससे हताहत हुए लोगों के प्रति ज़ाहिर अफ़सोस के साथ फिर कभी ऐसा न होने की दुआ करता हूं।

वंदे मातरम.....

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